Sunday, August 25, 2013

वो बचपन की, छत्त वाली नींद आब क्यों नहीं आती है?

वो बचपन की, छत्त वाली नींद आब क्यों नहीं आती है?
आती है अब वो याद मुझे, जब कभी यह दुनिया मुझको सताती है।

तब,
जब एक टेबल फ़ैन की हवा, 12 लोगों में बराबर बटा करती थी,
थोड़ी ज़्यादा हवा के लालच में, मां से डांट भी बहुत पड़ा करती थी।

तब,
जब बगल वाली छत के दोस्त, रात के हमसफर हुआ करते थे,
गप्पों के, ठहाकों के देर रात तक, छत्त पर पुलिंदे बंधा करते थे।

तब,
जब बिजली जाती थी, तो मन को अच्छा सा लगता था,
वो तीन छत्त दूर रहने वाली का उसी बहाने, दीदार तो हुआ करता था।

तब,
जब हम रातों को जी भर के, नौटंकी खेला करते थे,
सड़क पार वाले खूसट मिस्र जी को, नाटक का विलन बनाया करते थे।

तब,
जब चाँद वाले जलते बलब के नीचे, क्रिकेट टूर्नामेंट हुआ करता था,
छिले हुए घुटने और कोहनियाँ, जीतने का इनाम हुआ करता था।

तब,
जब अगले दिन वाली स्कूल की शरारतों का, प्रोग्राम बनाना होता था,
और घंटों पकड़े जने पर, क्या बोलेंगे? उस पर सम्मेलन करना होता था।

तब,
जब चाचा जी के घर जने पर, दिल खुश बहुत होता था,
क्योंकि मालूम था की रात आते ही, छत पर, कहानियों वाला बस्ता खुलना होता था।

तब,
जब ऐसा ही कुछ कुछ करते, कहीं पर भी सो जाया करता था,
सुबह उठो तो याद नहीं था, अपने बिस्तर पर किसने पहुंचाया होता था।

पता नहीं था तब क्यों मुझको, नींद और वो मासूम रातें कितनी कीमती होती हैं,
लेकिन मालूम होता है अब कभी कभी, जब रात भर नींद आँखों से रूठी होती है।

Monday, April 8, 2013

मुट्ठी भर चाँद पलकों में दबाये रखा है,
बूंद बूंद करके टपकेगा कभी,
चमक उसकी सारी उधार रख दी है,
सपनों पर आजकल, बायज बहुत लगता है।

Thursday, March 28, 2013

कुछ तो है, जो ये हो रहा है।

कुछ तो है, जो ये हो रहा है।
आकाश के परे, और एक अणु से भी छोटा।
ऊपर और नीचे, दोनों तरफ, अंतहीन।
कुछ तो है, जो ये हो रहा है।

पहाड़ों की सफ़ेद और हरी चादरों के पीछे,
नदियों नहरों में जो समय की तरह बेह रहा है,
कुछ तो है, जो हमारी समझ से बाहर है,
क्या है ये, जो हम समझ नही पा रहे है?
लेंस लेकर बैठे तो है, जो ढूंढ नहीं पा रहे हैं,
कुछ तो है, जो हमारे अंदर है,
हमारी जैसी कोई तस्वीर बना रहा है।

कुछ तो है जो एक और सिफर के बीच में रेहता है,
ढूंढो तो अंत-हीनता का नकाब ओढ़े है,
सभी सतेहों से परे, दूर कहीं,
कुछ तो है, जो पूरा होकर भी अधूरा है।
सबसे ऊपर से, सबसे नीचे तक,
अगर ऐसा कुछ है, तो क्या है वो?
कुछ तो है, जो ये हो रहा है।

Wednesday, March 20, 2013

सपने क्यों शरारत करते हैं ?

यह सपने क्यों शरारत किया करते हैं ?
आँखें मूंदने नहीं देते, चैन आने नहीं देते,
यूं ही पलकों के अंचल से लिपटे,
मुझको सताया करते हैं।
सपने मेरे ढीठ हैं बहुत,
शरारत से ये बाज़ नहीं आते।

Thursday, March 7, 2013

कुछ मुद्दत से यूं ही खामोश पड़े थे,
कई मुद्दे मुझे बरबस क्यों घूरे खड़े थे?
ज़रूरत वक़्त की नहीं थी के हमें सहारा देता,
उसकी कलाई हम भी तो मोड़े खड़े थे।
 
एक राह चलनी है,
कुछ सोच बदलनी है,
कहना है जो सुन्न है मुश्किल,
मुस्कान फिर भी थोड़ी,
चेहरे पे सजाये रखनी है।