वो बचपन की, छत्त वाली नींद आब क्यों नहीं आती है?
आती है अब वो याद मुझे, जब कभी यह दुनिया मुझको सताती है।
तब,
जब एक टेबल फ़ैन की हवा, 12 लोगों में बराबर बटा करती थी,
थोड़ी ज़्यादा हवा के लालच में, मां से डांट भी बहुत पड़ा करती थी।
तब,
जब बगल वाली छत के दोस्त, रात के हमसफर हुआ करते थे,
गप्पों के, ठहाकों के देर रात तक, छत्त पर पुलिंदे बंधा करते थे।
तब,
जब बिजली जाती थी, तो मन को अच्छा सा लगता था,
वो तीन छत्त दूर रहने वाली का उसी बहाने, दीदार तो हुआ करता था।
तब,
जब हम रातों को जी भर के, नौटंकी खेला करते थे,
सड़क पार वाले खूसट मिस्र जी को, नाटक का विलन बनाया करते थे।
तब,
जब चाँद वाले जलते बलब के नीचे, क्रिकेट टूर्नामेंट हुआ करता था,
छिले हुए घुटने और कोहनियाँ, जीतने का इनाम हुआ करता था।
तब,
जब अगले दिन वाली स्कूल की शरारतों का, प्रोग्राम बनाना होता था,
और घंटों पकड़े जने पर, क्या बोलेंगे? उस पर सम्मेलन करना होता था।
तब,
जब चाचा जी के घर जने पर, दिल खुश बहुत होता था,
क्योंकि मालूम था की रात आते ही, छत पर, कहानियों वाला बस्ता खुलना होता था।
तब,
जब ऐसा ही कुछ कुछ करते, कहीं पर भी सो जाया करता था,
सुबह उठो तो याद नहीं था, अपने बिस्तर पर किसने पहुंचाया होता था।
पता नहीं था तब क्यों मुझको, नींद और वो मासूम रातें कितनी कीमती होती हैं,
लेकिन मालूम होता है अब कभी कभी, जब रात भर नींद आँखों से रूठी होती है।